Sunday, August 2, 2009

फ्रेंडशीप डे के पुनीत अवसर पर

love a frnd who even hurts u. But never hurt a frnd who loves u.
Sacrifice everything 4a frnd,but never sacrifice a frnd 4 anything.
आज के संवेदनहीन भौतिकवादी युग में जहाँ सभी पुरातन व पारंपरिक संबंधों की गरमाहट समाप्त होती जा रही है, व्यक्ति स्वार्थवश अथवा मजबूरीवश सामाजिक-पारिवारिक संबंधों को जी नहीं पा रहा है, सभी तरह के संबंधों की पवित्रता लगभग मिटती जा रही है, रिश्तोंका मतलब जहाँ give&take relation रह गया है, जहाँ खून के रिश्ते भी बेमानी सिद्ध होने लगे हैं वहीं संबंधों की आत्मायता के इस संक्रमणकालीन दौर में भी एक रिश्ता ऐसा है जो संबंधों की आत्मीयता का अलख जगाए हुए है और वह है-- दोस्ती का रिश्ता।जी हाँ! आज भी यह एक ऐसा रिश्ता है जहाँ त्याग की भावना सर्वोपरि है। इस पुनीत अवसर मैं सभी दोस्तों के सफल व सुखद जीवन की कामना करता हूँ।

Sunday, May 10, 2009

क्या होती है माँ की ममता

ईश्वर धरती पर हर जगह नहीं पहुँच सकता इसलिए धरती पर ‘माँ’ को बनाया। आज ‘मदर्स डे’ है; आज की भौतिकवादी एवं पूँजीवादी दुनिया में व्यक्ति मशीन बनता जा रहा है, संवेदनाएँ ‘मशीन’ की भेंट चढ्ती जा रही हैं। नित्य संवेदनाओं की घटती के बीच आज भी माँ के प्रति लगाव कमोबेश विद्यमान है।इस पुनीत दिवस पर मेरे व मुझ जैसों की ओर से स्मृति स्वरूप...
क्या होती है माँ की ममता
माँ की ममता को समझ सकता है वही
जो है इससे महरूम
वो क्या खाक समझेंगे
माँकी ममता का महत्तव
जिनकी भोर होती है माँके वरदहस्त तले
दुपहरी जिनकी कट जाती है
माँ के आँचल की शीतल छाँव में
निशा की कालिमा से दूर
रात्रि जिनकी बीत जाती है
माँ की स्नेहमयी गोद में।
अरे! पूछो मुझ अभागे से
क्या होती है माँ की ममता
स्निग्ध ममता के महत्तव को
समझ सका था ना मैं भी
उस पुण्यात्मा की छत्रछाया
थी जबतक मेरे ऊपर
जा बैठी रश्मि किरणों के रथ पर
चल पडी स्वर्ग की राह
रास न आया मुझे माँ का स्वर्ग जाना
मैं स्वार्थी चिल्ला पडा
माँ... माँ.... माँ.....
न जा तू छोड मुझे,न बना अनाथ मुझे
कौन खिलाएगा अपने हाथों से खाना मुझे
कौन फेरेगा स्नेहमयी हाथ मेरे माथे पर
कौन देगा गोद मुझे अब
कहाँ मिलेगी मुझे वो थपकी
कौन कहेगा सो जा मेरे मुन्ने राजा
रात बहुत अब हो गयी है।
माँ ने मेरा क्रंदन न सुना
हो गई वह स्वर्गासीन
मुझे समझ आया तब
क्या होती है माँ की ममता
संभल जाओ,
संभल जाओ ए माँ की संतानों
कर दो न्योछावर जान अपनी
क्योंकि है वो तुम्हारी जननी
वरना,पछताओगे तुम भी मेरी तरह
हाय! कर न सका कुछ माँ के लिए
चित्कार कर उठोगे
जिस माँ ने मुझे लहू से सींचा
अंत समय उसे जल भी न दे सका
तब आएगी तुम्हें भी समझ
क्या होती है माँ की ममता।

Wednesday, May 6, 2009

प्यारे बच्चे

नन्हे- मुन्ने प्यारे बच्चे
माँ की आँखों के तारे ये
पापा के राजदुलारे बच्चे
दादा- दादी के दिल की
धड़कन होते सारे बच्चे
गुरू के देखे सपनों को साकार करते न्यारे बच्चे
प्रात नभ में उगे सूरज से
हर दिल रौशन करते बच्चे
भेद-भाव से भरी दुनिया में
सबको एक बनाते बच्चे
नन्हे- मुन्ने प्यारे बच्चे

पे कमीशन की हवा चली

पे कमीशन की हवा चली
सरकारी बाबुओं के तन में झुरझुरी उठी
साहबानों के मन में गुदगुदी उठी
’पे’ के तीन- चार गुना होने की उम्मीद जगी
और सरकारी कर्मचारियों की बाँछें खिल उठीं
प्रिय लगते अखबारों- चैनलों ने खबर सुनायी
’माननीय’ अध्यक्ष ने ‘जनसेवक’ मंत्री जी को
छठे पे कमीशन की रिपोर्ट थमायी
चारों तरफ अफ़रा-तफ़री मच गई
’जनता’ काम छोड पे जोडने में मस्त हुई.
पर पे कमीशन ने सबको है भरमाया
बाहर से खुश कर अंदर से डराया
मीडिया ने नए पे स्केल को जन-जन तक पहुँचाया
सरकारीजनों की भ्रांतियों को यथासंभव दूर भगाया
पर पे स्केल ने फिर सबको मायूस किया.
अजब है पे कमीशन की ये माया
आने से पहले सरकारीजनों को गुदगुदाती है
और आ जाने के बाद उन्हीं को रुलाती है
टूट जाते हैं सबके अपने प्रिय सपने
अकडता तन ढीला पड जाता है
मन में गुदगुदी की जगह आक्रोश छा जाता है.
यूनियनों के झण्डे- बैनर खडखडाने लगते हैं
अजीब है पैसे की ये माया
उरमू- नरमू, सीटू- डूकू, एटक- इंटक
सभी बैर भाव भूल जाते हैं
पैसे की खातिर सभी एक छतरी में आ जाते हैं.
सरकारी बाबू- बाबुआनों के मन बुझ जाते हैं
सपनों की दुनियाँ से निकल हकीकत में आ जाते हैं
फिर सभी पेंडिंग फाईलों में समा जाते हैं
पे कमीशन का गुस्सा फाईलों पर उतार जाते हैं
कमीशन से ‘जनकल्याण’ न होता देख
सभी अपने ‘धंधों’ में फिर से जुट जाते हैं.
पर उम्मीद का दामन अभी भी छूटा नहीं है
पे कमीशन का सपना पूरी तरह टूटा नहीं है
कभी तो कमीशन आसमां से ठोस धरती पर आएगी
और अपनी रपट धरतीपुत्रों के लिए बनाएगी
कभी तो वह चिरप्रतीक्षित सुखद दिन लाएगी
तब अन्दर से गुदगुदाएगी, बाहर से भी हँसाएगी
आँकडों की बाज़ीगरी से ऊपर उठकर
जन- जन के आँगन में खुशियों के फूल खिलाएगी.
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Monday, February 23, 2009

कलम के सिपाहियों के प्रति...

 
  वर्तमान समय मशीनीकरण का है और व्यक्ति जीवन के हर सुख- साधनों को यंत्र के जरिये हासिल कर रहा है. आज की उपभोक्तावादी संस्कृति व मोबाइल की क्रांतिकारी दुनिया में जहाँ वाक्य शब्दों में सिमटते जा रहे हैं और शब्द अपने अस्तित्व हेतु संघर्षरत दिख रहे हैं वहीं हमारी संस्कृति भी इनसे अछूती नहीं रही. आज उपभोक्तावादी सोच अपने पूरे सबाब पर है और इसने पूरी दुनिया को आक्रांत कर रखा है, विशेषकर हमारी युवा पीढी को. जिनके कंधों पर देश- दुनिया को बहुत आगे ले जाने की जिम्मेदारी है,वे कंधे सुविधाभोगी मशीनों के जाल में उलझते जा रहे हैं. इस मशीनीकरण के युग ने सुविधा तो दे दी परंतु सोच का दायरा सीमित कर दिया जिससे सृजनात्मकता पूरी तरह प्रभावित होने लगी है. 
  ऐसी संक्रमणकालीन स्थिति में भी विद्यालय के नौनिहालों ने ‘मशीनीकरण’ से टक्कर लेते हुए अपनी सृजनात्मक क्षमता को विद्यालय पत्रिकाओं में जीवित रखा है. विद्यालय पत्रिका किसी भी विद्यालय की गतिविधियों का आईना होती है. वह मूर्त रूप होतीहै _ विद्यार्थियों की प्रतिभा, कल्पना, कलात्मक सौंदर्य और सृजनात्मक क्षमता का. आज की स्थिति में यह पत्रिका संजीवनी बूटी के सदृश है जो अपने सीमित कलेवर में भी विविधता से भरी एक बडी रचनात्मक दुनिया को अपने में समेटे हुए है. यह नन्हे- मुन्ने एवं किशोरवय छात्र रचनाकरों की असीमित ऊर्जा व विज़न का भंडार होती है. यह पत्रिका बच्चों की उस दुनिया के आगे चुनौती बन खडी होती है जो एस. एम. एस. की भाषा- शैली वाली दुनिया में जी रहे हैं. यह पत्रिका आधार होती है—नए सृजित व आकार लेते भविष्य के द्रष्टा और स्रष्टा की. भविष्य के महान रचनाकारों की फ़ेहरिस्त में शामिल होने की योग्यता रखने वाले बाल सर्जकों की दस्तक होती है यह पत्रिका. विद्यालय पत्रिका इस रूप में भी अनुकरणीय है कि इसमें विद्यालय के प्रत्येक वर्ग के विद्यार्थियों का अहम योगदान होता है. यह पत्रिका छात्रों की साहित्यिक उपलब्धि के साथ- साथ उनके सामूहिक दायित्वबोध को भी रेखांकित करती है. ऐसे सिपाहियों एवं उनके जज़्बे को मेरा सलाम! 


Saturday, February 21, 2009

काश! अगर मै नन्हा होता

काश!अगर मै नन्हा होता
काश !अगर मै नन्हा होता
माँ की आँखो का तारा
पिता का प्यारा
सारे घर का दुलारा होता
माँ की गोद मे सुबह
उन्मुक्त गगन तले शाम होती
मेरा वो प्यारा गाँव होता
हरे भरे वो खेत
वही पुरानी पगडंडियाँ होती
गिरता पडता उनपर मै
तितलियो के पीछे भागा करता
काश !अगर मै नन्हा होता
न झूठी बौधिकता आती
न डिग़्रियो का भार ढोता
न बेकारी का शाप होता
न कोई हिन्दू न कोई मुस्लिम
न कोई सिक्ख,ईसाई होता
सारे अपने होते
कोई न पराया होता
काश !अगर मै नन्हा होता
न बोफोर्स न प्रतिभूति
न हवाला और न चारा कांड होता
न ही भारत माँ का खद्दरधारी बेटा
अपनी माँ का ही दलाल होता
न झारखंड की माँग होती
न उत्तराखंड विरान होता
न कश्मीर की खूनी होली होती
न खालिस्तान का भयावह इतिहास होता
सारा भारत अपना होता
काश! अगर मै नन्हा होता