जगने लगा हूँ , समझने लगा हूँ
जिस 'नींद' में ख़्वाब आते बहुत थे
उस नींद से अब मैं जगने लगा हूँ ।
जो ख़्वाब 'हसीन' लगते कभी थे
उस ख़्वाब से अब बचने लगा हूँ ।
देखा करीब से जब 'ज़िंदगी' को
इसे और बेहतर समझने लगा हूँ।
उड़ता था शायद मैं ऊँची बयार में
ज़मी पर अब पाँव रखने लगा हूँ।
लफ़्ज़ों की मुझे अब ज़रूरत नहीं
चेहरों को जब से मैं पढ़ने लगा हूँ।
थक जाता हूँ अक्सर जब शोर से
तन्हाइयों से बातें मैं करने लगा हूँ।
बदलते आलम-ए अक्स देखकर
शायद कुछ मैं भी बदलने लगा हूँ।
परवाह नहीं, कोई साथ आए मेरे
मैं अकेले ही आगे बढ़ने लगा हूँ ।
जब मिला न किसी हाथ का साथ
मैं खुद ही नया कुछ गढ़ने लगा हूँ।।
- शुभ