Monday, September 13, 2010

हिन्दी दिवस के बहाने

हम सभी को विदित है कि प्रत्येक वर्ष 14 सितम्बर हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। हिन्दी मात्र हमारी भाषा ही नहीं वरन हमारी संस्कृति भी है तभी तो खडी. बोली के प्रथम कवि अमीर खुसरो से लेकर राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी तक ने सामाजिक,सांस्कृतिक,राजनैतिक और समग्रत: राष्ट्रीय महत्व को समझते हुए सभी ने इसे ‘राष्ट्रभाषा’ का दर्जा प्रदान करने की माँग की थी।लेकिन वर्तमान भारतीय परिवेश में ‘हिन्दी दिवस’ औपचारिकताओं का निर्वाह मात्र रह गया है। प्रतिवर्ष इस दिवस पर साहित्यिक कार्यक्रमों यथा, गोष्ठियों,भाषण व वाद-विवाद प्रतियोगिता, पुरस्कार वितरण आदि का आयोजन कर हम अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं।
लेकिन भारतीय हिन्दी साहित्य में नवजागरण के अग्रदूत भारतेन्दु हरिश्चंद्र की पंक्ति---
‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल ।
निज भाषा उन्नति बिन, मिटै न हिय को सूल ॥
की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। महात्मा गाँधी ने राष्ट्रीय स्वाधीनता में इसकी उपयोगिता को देखते हुए ही कहा था कि “हिन्दी का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है।‘’ स्वराज(राजनैतिक) तो प्राप्त हुआ पर न जाने हिन्दी कहाँ रह गई।
भारतीय नवजागरण चेतना से संपन्न सुधारकों ने हिन्दी को उचित स्थान प्रदान करवाने हेतु अथक प्रयास किया। पर स्वतंत्रता के पश्चात हमारे शाषकों ने धीरे-धीरे बिसारना शुरू कर दिया है। संविधान की धारायें महज औपचारिकता बन कर रह गईं हैं और हिन्दी धीरे-धीरे ‘राजभाषा’ की श्रेणी से भी नीचे उतर रही है।
आज हम विश्व भूमंडलीकरण, तकनीकीकरण और पूँजीवादी संस्कृति के नाम पर हिन्दी को पीछे धकेलते जा रहे हैं।यह शासक वर्ग की एक दूरगामी चाल है ताकि देश की उन्नति में समस्तजनों की सहभागिता न हो सके और उनकी सियासत बनी रहे।सभी ‘हिन्दवासियों’ को चाहिए कि वे हिन्दी को उचित स्थान दिलाने का हरसंभव प्रयास करें क्योंकि भारतीय संस्कृति को पुन: गरिमामय बनाने हेतु यह अत्यंत आवश्यक है। अत: मैं कह सकता हूँ कि “हिन्दी ही हमारी राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी भी चाहिए। “ विश्व में हिन्द,हिन्द में हिन्दी जैसे दमके माथे पर बिन्दी।

Friday, January 22, 2010

रेणु के जीवन के दो सच

  सर्वप्रथम हिन्दी दैनिक हिन्दुस्तान को साधुवाद एवं धन्यवाद!आज के व्यावसायिक दौर मंल जहाँ खबरें भी बाजारवादी हो गई हैं ऐसे दौर में इस दैनिक पत्र द्वारा देश के महान साहित्यकारों से जुडी खबरें प्रमुखता से प्रकाशित करना रेगिस्तान में नखलिस्तान बनाने जैसा है। 
  महान क्रांतिकारी, राजनैतिक चेतना संपन्न व्यक्तित्व, आंचलिकता के प्रणेता एवं कथाशिल्पी –फ़णीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने वही सिरजा जिसे देखा और भोगा। ऐसे विरले कथाकार के निधन के लंबे अंतराल के बाद चौंकाने वाली दो खबरें ‘हिन्दुस्तान’ के द्वारा हम तक पहुँची ।पहली खबर-पद्मा रेणु एवं लतिका जी का मिलन जैसे गंगा-यमुना का मिलन। इस खबर ने सभी साहित्यप्रेमियों को सुखद आश्चर्य से ओत-प्रोत कर दिया। इन दोनों का मिलन यह दिखाता है कि उनपर रेणु जी के व्यक्तित्व का गहरा प्रभाव है जिन्होंने स्व से ज्यादा समाज को महत्व दिया था। साथ ही,रेणु जी के व्यक्तित्व व कृतित्व में कई नए आयाम जुडेंगे। 
  लेकिन दूसरी खबर ‘रेणु जी के इलाज़ में बरती गई थी लापरवाही’ सभी चेतनशील जनों के हृदय को गहरा आघात पहुँचाता है। यह एक स्तब्धकारी सत्य है जो क्षण भर के लिए मुझे चेतनशून्य कर गया। रेणु जैसे लब्ध प्रतिश्ठित साहित्यकार के साथ पी एम सी एच के डॉक्टरों, अस्पताल प्रशासन द्वारा ऐसा रवैया समाज में साहित्यकारों के प्रति संवेदनहीनता व अमानवीयता को तो दर्शाता ही है, साथ ही वी आई पी के प्रति उनकी चाटुकारिता को भी उजागर करता है। धरती पर भगवान के प्रतिरूप माने जाने वाले डॉक्टर भी मरीजों से पद-पैसा के अनुसार भेद –भाव करते हैं। उनका यह कृत्य न सिर्फ अपने पेशे के प्रति जघन्य अपराध है बल्कि मानवता के प्रति भी अपराध है और एक मरीज के विश्वास की हत्या भी है।
  डॉक्टरों द्वारा रेणु के इलाज में लापरवाही से असमय ही हिन्दी साहित्य-जगत का एक महान सर्जक सदा के लिए हमसे जुदा हो जाता है और साहित्य जगत भविष्य में होनेवाले उनके महान सृजन से भी वंचित हो जाता है।यह हर दृष्टि से घोर अपराध है और प्रत्येक साहित्य-प्रेमी इसकी घोर भर्त्सना करते हुए समुचित न्याय के लिए पद्मा रेणु व लतिका जी के साथ है।
डॉ. शुभ, के. वि. कंकडबाग, पटना