Monday, February 23, 2009

कलम के सिपाहियों के प्रति...

 
  वर्तमान समय मशीनीकरण का है और व्यक्ति जीवन के हर सुख- साधनों को यंत्र के जरिये हासिल कर रहा है. आज की उपभोक्तावादी संस्कृति व मोबाइल की क्रांतिकारी दुनिया में जहाँ वाक्य शब्दों में सिमटते जा रहे हैं और शब्द अपने अस्तित्व हेतु संघर्षरत दिख रहे हैं वहीं हमारी संस्कृति भी इनसे अछूती नहीं रही. आज उपभोक्तावादी सोच अपने पूरे सबाब पर है और इसने पूरी दुनिया को आक्रांत कर रखा है, विशेषकर हमारी युवा पीढी को. जिनके कंधों पर देश- दुनिया को बहुत आगे ले जाने की जिम्मेदारी है,वे कंधे सुविधाभोगी मशीनों के जाल में उलझते जा रहे हैं. इस मशीनीकरण के युग ने सुविधा तो दे दी परंतु सोच का दायरा सीमित कर दिया जिससे सृजनात्मकता पूरी तरह प्रभावित होने लगी है. 
  ऐसी संक्रमणकालीन स्थिति में भी विद्यालय के नौनिहालों ने ‘मशीनीकरण’ से टक्कर लेते हुए अपनी सृजनात्मक क्षमता को विद्यालय पत्रिकाओं में जीवित रखा है. विद्यालय पत्रिका किसी भी विद्यालय की गतिविधियों का आईना होती है. वह मूर्त रूप होतीहै _ विद्यार्थियों की प्रतिभा, कल्पना, कलात्मक सौंदर्य और सृजनात्मक क्षमता का. आज की स्थिति में यह पत्रिका संजीवनी बूटी के सदृश है जो अपने सीमित कलेवर में भी विविधता से भरी एक बडी रचनात्मक दुनिया को अपने में समेटे हुए है. यह नन्हे- मुन्ने एवं किशोरवय छात्र रचनाकरों की असीमित ऊर्जा व विज़न का भंडार होती है. यह पत्रिका बच्चों की उस दुनिया के आगे चुनौती बन खडी होती है जो एस. एम. एस. की भाषा- शैली वाली दुनिया में जी रहे हैं. यह पत्रिका आधार होती है—नए सृजित व आकार लेते भविष्य के द्रष्टा और स्रष्टा की. भविष्य के महान रचनाकारों की फ़ेहरिस्त में शामिल होने की योग्यता रखने वाले बाल सर्जकों की दस्तक होती है यह पत्रिका. विद्यालय पत्रिका इस रूप में भी अनुकरणीय है कि इसमें विद्यालय के प्रत्येक वर्ग के विद्यार्थियों का अहम योगदान होता है. यह पत्रिका छात्रों की साहित्यिक उपलब्धि के साथ- साथ उनके सामूहिक दायित्वबोध को भी रेखांकित करती है. ऐसे सिपाहियों एवं उनके जज़्बे को मेरा सलाम! 


Saturday, February 21, 2009

काश! अगर मै नन्हा होता

काश!अगर मै नन्हा होता
काश !अगर मै नन्हा होता
माँ की आँखो का तारा
पिता का प्यारा
सारे घर का दुलारा होता
माँ की गोद मे सुबह
उन्मुक्त गगन तले शाम होती
मेरा वो प्यारा गाँव होता
हरे भरे वो खेत
वही पुरानी पगडंडियाँ होती
गिरता पडता उनपर मै
तितलियो के पीछे भागा करता
काश !अगर मै नन्हा होता
न झूठी बौधिकता आती
न डिग़्रियो का भार ढोता
न बेकारी का शाप होता
न कोई हिन्दू न कोई मुस्लिम
न कोई सिक्ख,ईसाई होता
सारे अपने होते
कोई न पराया होता
काश !अगर मै नन्हा होता
न बोफोर्स न प्रतिभूति
न हवाला और न चारा कांड होता
न ही भारत माँ का खद्दरधारी बेटा
अपनी माँ का ही दलाल होता
न झारखंड की माँग होती
न उत्तराखंड विरान होता
न कश्मीर की खूनी होली होती
न खालिस्तान का भयावह इतिहास होता
सारा भारत अपना होता
काश! अगर मै नन्हा होता