Friday, November 30, 2018

फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ की रचनाओं में आंचलिकता व लोक संस्कृति : ‘पहलवान की ढोलक’ पाठ के सन्दर्भ में
       
फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ आधुनिक हिंदी कथा साहित्य में ग्रामांचल को समग्र रूप में चित्रित करने वाले एक सफल और अद्वितीय साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित हुए हैं | उनकी रचनाओं में जीवन की वास्तविकता का प्रतिबिंब दृष्टिगोचर होता है| रेणु का रचना संसार एक ईमानदार लेखक की सहज अभिव्यक्ति है| जीवन के घात प्रतिघातों से जूझते हुए उन्होंने समाज के व्यापक धरातल को अतिशय बारीकी से देखा और परखा है| इस प्रयास में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक धरातल की कसौटी पर अपनी रचनाओं में कसा है और उनकी सभी रचनाएं इस पर खरी भी उतरी हैं| इसमें कोई दो राय नहीं कि रेणु एक स्थापित आंचलिक कथाकार हैं लेकिन इससे भी बढ़कर वह मानव संबंधों के सफल कथाकार हैं| चूँकि रेणु की पृष्ठभूमि ग्रामीण है और उनका रचना संसार भी भारतीय गांव है, उन्होंने अपनी रचनाओं में आजादी के पूर्व से लेकर बाद तक के भारतीय ग्रामीण समाज के संबंधों पर यथार्थवादी दृष्टिकोण का परिचय दिया है|
         ग्रामीण समाज एवं संस्कृति को अभिव्यक्त करने के लिए जिस ग्रामीण भाषा शैली का प्रयोग होना चाहिए रेणु ने उसका पूरा पूरा ध्यान रखा है| यूं कहा जाए कि रेणु की ग्रामीण पृष्ठभूमि, रचना संसार में अभिव्यक्त ग्राम जगत की संपूर्णता और उस संपूर्णता को प्रस्तुत करने के लिए ‘देसी’ भाषा शैली का चयन, यह सभी पक्ष रेणु के प्रति आत्मीयता का बोध कराने वाले हैं| उनकी भाषा ‘इंडिया’ पर ‘भारत’ के छा जाने की भाषा है| रेणु के उपन्यासों में ग्रामीण समाज का सच और समाज के प्रत्येक वर्ग के लोगों के संबंधों का सटीक चित्रण है जो संवेदनशील लोगों को हमेशा आकर्षित और प्रेरित करती है कि रेणु के इस दृष्टिकोण को समझा जाए| स्वातंत्र्योत्तर भारत के गांवों में सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक एवं धार्मिक दृष्टि से जो बदलाव देखे गए हैं उसके प्रत्येक पक्ष पर रेणु ने अपने कथा साहित्य में जिस तरह से विचार व्यक्त किया है उन्हीं पक्षों को ध्यान में रखते हुए रेणु की रचनाओं में स्वातंत्र्योत्तर भारत के ग्रामीण समाज का बदलता सच देखा जा सकता है|
    रेणु की रचनाओं के माध्यम से उनके आर्थिक दृष्टिकोण को भी समझा जा सकता है |आजाद भारत के गांवों में अर्थव्यवस्था के विविध पहलुओं ने किस प्रकार ग्रामीण समाज में हलचल पैदा कर दिया और गांव के परंपरागत संबंध किस प्रकार प्रभावित हुए, इसे रेणु ने अपने कथा साहित्य में बेबाकी के साथ स्पष्ट किया है| रेणु की ग्रामीण संवेदना का जो एक धरातल ‘मैला आंचल’  में अभिव्यक्त हुआ है, वह आगे उनकी रचनाओं में और भी विस्तृत होता जाता है|                                                                         
हिंदी में ग्राम्य जीवन पर लिखने वाले रचनाकारों के क्रम में रेणु का नाम ऐसे समर्थ रचनाकार के रूप में लिया जाता है जिन्होंने ग्रामीण जीवन को एक विशेष प्रकार की अभिव्यक्ति दी है| एक ऐसी अभिव्यक्ति जिसमें गवंई आत्मीयता की सोंधी गंध थी और यही गंध रेणु को अन्य ग्रामीण कथाकारों से भिन्न करती है और बहुत दूर तक विशिष्ट भी| इतना ही नहीं रेणु संभवतः हिंदी ग्राम्य कथा साहित्य के पहले रचनाकार हैं जिनमें गांवों की परिवर्तित अनगढ़ राजनीतिक चेतना का स्वरूप अपनी पूरी गत्यात्मकता में रूपायित हुआ है|                                                            
          आंचलिक कथाकारों में रेणु का स्थान सर्वोपरि है | रेणु के कथा साहित्य में वास्तव में ग्रामीण जीवन के जितने सुन्दर सजीव और सवाक चित्र देखने को मिलते हैं उतने अन्यत्र संभव नहीं | स्वतन्त्रता प्राप्ति के काल और उसके पश्चात के गाँवों का सामाजिक तथा राजनीतिक चित्र उनकी रचनाओं में अत्यंत कुशलता से उकेरे गए हैं | अपनी रचनाओं में गांव की छोटी-छोटी घटनाओं, रीति रिवाजों, रूढ़ियों-परंपराओं, उनकी विचारधारा और पारस्परिक संबंधों को उनकी संश्लिष्टता व समग्रता में चित्रित कर देने के कारण ही रेणु की रचनाएं हिंदी साहित्य की उपलब्धि बन गई हैं|
       ‘पहलवान की ढोलक’ कहानी में भी कई रंग देखने को मिलते हैं। इसमें लोक संस्कृति अपनी कई विशेषताओं के साथ अभिव्यक्त होती है। रेणु की लेखनी में गांव, अंचल और लोक संस्कृति को सजीव करने की अद्भुत क्षमता है। पात्रों एवं परिवेश का इतना जीवंत चित्रण अन्यत्र दुर्लभ है। रेणु ने गद्य में भी संगीत पैदा कर दिया है।अन्यथा ढोलक की उठती गिरती आवाज़ और पहलवान के क्रिया –कलापों का ऐसा सामंजस्य भी दुर्लभ है | यह रेणु की रचनाधर्मिता और प्रयोगधर्मिता ही है कि वे वाद्य यंत्रों की ध्वनियों को शब्दबद्ध कर देते हैं और उन शब्दों को अर्थ भी प्रदान करते हैं | रेणु की रचनाओं में नायक कोई व्यक्ति नहीं बल्कि पूरा अंचल ही नायक है| नायकत्व की अवधारणा को नई दिशा देने वाले रेणु यहीं नहीं रूकते बल्कि वे गुरू की अवधारणा को भी बदलते हुए दिखते हैं ,तभी तो पहलवान का गुरू कोई व्यक्ति नहीं अपितु एक ढोल है |
       प्रस्तुत कहानी लोक कला के महत्व व व्यवस्था के बदलने के साथ लोक कला के अप्रासंगिक हो जाने की भी कहानी है। राजा की जगह राजकुमार का आना सिर्फ व्यक्तिगत सत्ता परिवर्तन नहीं बल्कि लोक परंपरा के पोषक व्यवस्था की जगह पूंजीवादी व्यवस्था के छा जाने की कहानी है। कह सकते हैं 'भारत' पर 'इंडिया' के छा जाने की समस्या है जो लुट्टन पहलवान को राज पहलवान से निरीहता की भूमि पर पटक देता है और जो लुट्टन कभी कुश्ती में चित्त नहीं हुआ, वह भूख से लड़ते हुए अंत में मौत के द्वारा ‘चित्त’ कर दिया जाता है। मैनेजर साहब का कथन भारतीय ग्राम जीवन की जातिगत कड़वी हकीकत को भी संकेतित करता है | यह पाठ कई प्रश्न हमारे सामने छोड़ जाती है -- क्या कला  की प्रासंगिकता व्यवस्था की  मुखापेक्षी है या उसका कोई स्वतंत्र मूल्य भी है। इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो इस पूंजीवादी/ बाजारवादी सोच के बीच लोक संस्कृति को बचाए रखना एक चुनौती है।
        अंततः कहा जा सकता है कि रेणु का साहित्य एक भोगे हुए यथार्थ की अभियक्ति है |रेणु एक सजग रचनाकार हैं| मैला आँचल की भूमिका में उनकी उक्ति इसका प्रमाण भी है – “इसमें फूल भी है, शूल भी, धूल भी है, कीचड़ भी है, चन्दन भी, सुन्दरता भी है, कुरूपता भी –- मैं किसी से दामन बचाकर नहीं निकल पाया|” और मेरा मानना है कि एक ईमानदार रचनाकार को इनसे बचना भी नहीं चाहिए|   

डॉ. शुभ नारायण सिंह                                                                                     

No comments: